जो नज़र आता था बाहर से वो कब अंदर से था उस के जीने का सलीक़ा उस के पस-मंज़र से था शाम होते ही उदासी घेर लेती थी उसे राब्ता उस का कहीं क्या डूबते मंज़र से था क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ पा कर भी कहाँ जाता परिंद उस के उड़ने का तअल्लुक़ कुछ तो मेरे घर से था फ़र्द था जिस घर का उस ने भी न पहचाना उसे मरने वाले शख़्स का नाम-ओ-नसब तो सर से था गुज़रे लम्हों की सदाएँ देर तक आती रहीं कुछ तो रिश्ता जाने वालों का उजड़ते घर से था