जो पी रहा है सदा ख़ून बे-गुनाहों का वो शख़्स तो है नुमाइंदा कज-कुलाहों का जिसे भी चाहा सलीब-ए-सितम पे खींच दिया फ़क़ीह-ए-शहर तो क़ाइल नहीं गवाहों का हम अहल-ए-दिल हैं सदाक़त हमारा शेवा है हमें डरा न सकेगा जलाल शाहों का हर एक क़द्र को रुस्वाइयाँ मिलीं इन से अजीब सा रहा किरदार-ए-दीं पनाहों का मिरी ज़मीन को मक़बूज़ा तू ज़मीं न समझ कि टूटने को है अफ़्सूँ तिरी सिपाहों का अभी तो अज़्म-ए-सफ़र भी किया न था हम ने कि जाग उट्ठा हर इक ज़र्रा शाह-राहों का