जो रक़ीबों ने कहा तू वही बद-ज़न समझा दोस्त अफ़सोस न समझा मुझे दुश्मन समझा ना-तवाँ वो हूँ कि बिस्तर पे मुझे देख के आह तार-ए-बिस्तर कोई समझा कोई सोज़न समझा तेग़-ए-क़ातिल जो मोहब्बत से लगी आ के गले ताब को उस की मैं अपनी रग-ए-गर्दन समझा अपने पाजामा-ए-कमख़्वाब की हर बोटी को शम्अ-रू शब को चराग़-ए-तह-ए-दामन समझा सुर्अत-ए-अबलक़-ए-अय्याम से ग़ाफ़िल था आह दम-ए-आख़िर मैं उसे उम्र का तौसन समझा ख़ार-ए-सहरा से छिदी जब कफ़-ए-पा मजनूँ की ख़ाक-बेज़ी को वो ग़िर्बाल का रौज़न समझा कमर-ए-यार का अज़-बस-कि जो रहता है ख़याल दिल को मैं चीनी-ए-मू-दार का बर्तन समझा गुल को मालूम न थी हस्ती-ए-फ़ानी अपनी ऐ नसीम-ए-सहरी वक़्त-ए-शगुफ़्तन समझा बिस्तर-ए-गुल से मुनक़्क़श जो हुआ उस का बदन तन-ए-नाज़ुक पे वो फुलकारी की चिपकन समझा जीते-जी चाहिए है आक़िबत-ए-कार की फ़िक्र फ़ाएदा क्या अगर इंसाँ पस-ए-मुर्दन समझा मीरज़ाई को न फ़रियाद ने छोड़ा ता-मर्ग जीग़ा-ए-सर तुझे ऐ तेशा-ए-आहन समझा अक्स-अफ़्गन है तिरे साग़र-ए-सहबा में ये ज़ुल्फ़ तू अबस ऐ बत-ए-मय-कश उसे नागन समझा साया-ए-ज़ुल्फ़ ने उस के ये दिया धोका रात चलने वालों ने जिसे अफ़ई-ए-रहज़न समझा चश्म ने अपनी तरफ़ से तो सुझाई थी 'नसीर' दिल न पर उस सितम-ईजाद की चितवन समझा