जो रुख़ पे डाले हुए वो नक़ाब निकलेगा इक इंक़लाब पस-ए-इंक़लाब निकलेगा अभी तक ओढ़े हुए हूँ मैं बर्फ़ की चादर है इंतिज़ार अभी आफ़्ताब निकलेगा सफ़र के साथ शुऊर-ए-सफ़र ज़रूरी है क़दम क़दम पे नया इक सराब निकलेगा चुभन जो होती है तुम को तो देखना इक दिन हर एक लफ़्ज़ हमारा गुलाब निकलेगा अगर तलाश करोगे ज़बान का शाइ'र तो 'शान-भारती' ही इंतिख़ाब निकलेगा