जो शहर-ए-वहशत में जा बसा हो वो क्या सुकून-ओ-क़रार लिक्खे किसे है ये हौसला कि बिखरे तो किर्चियों का शुमार लिक्खे कभी सुनाई नहीं किसी को भी दास्तान-ए-दिल-ए-दरीदा बहुत क़रीने से ज़ख़्म लिक्खे बहुत सलीक़े से ख़ार लिक्खे बहुत सुहूलत से चुप को लिक्खा लिखा है हसरत से गुफ़्तुगू को वो जो गुमाँ थे कोई न लिक्खे यक़ीं के पहलू हज़ार लिक्खे रफ़ाक़तों के नगर में देखा अकेला-पन था मुहीत हर सू तलब किसी को नहीं किसी की न अब कोई ग़म-गुसार लिक्खे सफ़र है लाज़िम तो क्यों हो मातम ये राएगानी का ज़िक्र कैसा जो मेरे रस्ते के पेच-ओ-ख़म थे वो रहगुज़र का ग़ुबार लिक्खे किसी कहानी में रंज लिक्खा किसी ग़ज़ल में है ज़ब्त-ए-गिर्या कभी सँवरने की बात की है कहीं फ़क़त इज़्तिरार लिक्खे 'हिजाब' कहना ये उस से जा कर किसी को तेरा जुनूँ नहीं है किसी को उजलत नहीं है कोई सुकून से इंतिज़ार लिक्खे ये दिल अहम है चलो ये माना मगर सुनो ये अना भी कुछ है तो ये भी उस से 'हिजाब' कहना कभी न ख़ुद बे-क़रार लिक्खे