जो सुनते हैं तो मैं मम्नून हूँ उन की इनायत का कहूँ क्या अब कि मौक़ा ही नहीं बाक़ी शिकायत का नया मज़मून क्या होता वो ख़त में और क्या लिखते वही आया है जो लिक्खा हुआ था अपनी क़िस्मत का हमें तो आप की बेबाकियों से डर ही रहता है नहीं मालूम किस दिन वक़्त आ जाए नदामत का नज़र आता नहीं अब घर में वो भी उफ़ रे तन्हाई इक आईने में पहले आदमी था मेरी सूरत का थके अहबाब आख़िर हर तरह 'नातिक़' को समझा कर असर मिन्नत समाजत का न कुछ ल'अनत मलामत का