जो सूरत देख ली उस मह-लक़ा की नज़र आई मुझे क़ुदरत ख़ुदा की अभी क़ब्रों से मुर्दे उठ खड़े हों सुनें आवाज़ गर रफ़्तार-ए-पा की मिरा दिल ले के मुझ से फिर गया है वफ़ा के बदले ज़ालिम ने दग़ा की किए जाते हो मुझ से बे-वफ़ाई ज़बाँ मेरी नहीं अब तक है शाकी हज़ारों ग़ैर को देते हो बोसे लिया गर एक मैं ने क्या ख़ता की किए जाता है जौर-ओ-ज़ुल्म मुझ पर कुछ आख़िर इंतिहा भी है जफ़ा की मुझे काफ़ी है तेरा साया-ए-ज़ुल्फ़ नहीं ख़्वाहिश है कुछ ज़िल्ल-ए-हुमा की न आया पर न आया वो सितमगर ख़ुशामद की बहुत कुछ इल्तिजा की तुम्हारे आब-ए-‘ख़ंजर’ का हूँ प्यासा नहीं है आरज़ू आब-ए-बक़ा की