जो तिरी बंदगी से मिलता है लुत्फ़ वो कम किसी से मिलता है है ये काफ़ी तिरा मिरा शजरा एक ही आदमी से मिलता है लाख बरहम हो वो मगर यारो फिर भी शाइस्तगी से मिलता है दिन को लगता है धूप उस का मिज़ाज रात को चाँदनी से मिलता है अब तो मुझ को वो मेरी रग रग में दौड़ती सनसनी से मिलता है हों मह-ओ-मेहर या नुजूम तमाम वो किसी न किसी से मिलता है लाख भटकूँ मैं ज़ुल्मतों में मिरा इक सिरा रौशनी से मिलता है क़ाबिल-ए-दीद रंग होते हैं जब कभी सादगी से मिलता है पहले मेरी ख़ुशी से मिलता था अब वो अपनी ख़ुशी से मिलता है शुक्र-सद-शुक्र कि मिरा ज़ाहिर हालत-ए-बातिनी से मिलता है जो मुझे मौजिब-ए-मसर्रत है दर्द भी तो उसी से मिलता है उस में हर रंग ऊद आया है वो मिरी शाइ'री से मिलता है गुलशन-ए-दिल में जब बहारें हों कौन फिर बेकली से मिलता है हिज्र में बे-सुकून रहता हूँ चैन भी हिज्र ही से मिलता है अब तो इस ज़िंदगी का हर लम्हा लम्हा-ए-आख़िरी से मिलता है देख कर ज़र्फ़ पास आता है दर्द कम ही किसी से मिलता है सिलसिला-हा-ए-वुसअ'त-ए-सहरा दिल की उस तिश्नगी से मिलता है जब से वो आँख के फ़्रेम में है जो है मिलता उसी से मिलता है ऐ मुहक़क़िक़ सुराग़-ए-क़त्ल मिरा आख़िरश ज़िंदगी से मिलता है रोज़ वो ढूँडते हैं 'ताहिर' को रोज़ उस की गली से मिलता है