जो तुम आओ तो फिर जीने के सामाँ हो भी सकते हैं

जो तुम आओ तो फिर जीने के सामाँ हो भी सकते हैं
रफ़ू ये चाक-ए-दामान-ओ-गरेबाँ हो भी सकते हैं

वो आँखें पासबाँ हों दिल की तो दिल का पता कैसा
कहीं गुलचीं निगहबान-ए-गुलिस्ताँ हो भी सकते हैं

जिन्हें अब तक न आया हँस के मौज-ए-ग़म को ठुकराना
वो कम-हिम्मत किसी दिन नज़्र-ए-तूफ़ाँ हो भी सकते हैं

ज़माना मुंतज़िर है इक नए रंग-ए-हक़ीक़त का
ये अफ़्साने कहीं तारीख़-ए-इंसाँ हो भी सकते हैं

हमीं पर आम हैं दौर-ए-वफ़ा में उन की बेदादें
हमीं पर ख़त्म सारे अहद-ओ-पैमाँ हो भी सकते हैं

जो बे-मक़्सद तमन्नाओं का गहवारा रहा बरसों
कहीं इस दिल की आबादी के इम्काँ हो भी सकते हैं

मैं अपनी दास्तान-ए-ग़म को क्या उन्वान दूँ 'अज़्मत'
मुरत्तब दिल के औराक़-ए-परेशाँ हो भी सकते हैं


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