जो वाक़िफ़ है ज़माने के चलन से वो बच जाएगा दौर-ए-पुर-फ़ितन से उन्ही की है पस-ए-पर्दा ये साज़िश बहुत मशहूर थे जो भोल-पन से सर-ए-बातिल झुका है और झुकेगा रहेंगे हम हमेशा बाँकपन से जिसे तीर-ओ-तबर भी कर न पाए लिया है काम हम ने वो सुख़न से जो फूलों से हमारी दोस्ती है कई काँटे जुड़े हैं पैरहन से लताफ़त देखिए उर्दू ज़बाँ की कि जैसे फूल झड़ते हों दहन से तुम्हें जब भी तख़य्युल में उतारा नई ख़ुशबू उठी है फिर बदन से किसी के वास्ते हम ने भी 'उश्बा' चुने हैं फूल उल्फ़त के चमन से