जो वस्फ़ रक्खा है वो बे-मिसाल रक्खा है बशर में अपना ख़ुदा ने जमाल रक्खा है उन्हें तो बख़्शी हैं ख़ुशियाँ बनाने वाले ने हमारे वास्ते रंज-ओ-मलाल रक्खा है हर एक लम्हा नई आफ़तें उतरती हैं हमारा कितना फ़लक ने ख़याल रक्खा है हमारी बज़्म में आओ तो ग़ैर से भी मिलो ये मेरे सामने उस ने सवाल रक्खा है ये किस के धोके में मयख़ाने आ गए वाइज़ अमाँ में हम हैं तुम्हें भी सँभाल रक्खा है कुछ अपने जैब-ओ-गरेबाँ की सुध तो ले 'साक़ी' बना के तू ने अजब अपना हाल रक्खा है