मुझ से साक़ी ने कही रात को क्या बात ऐ 'जोश' यानी अज़दाद हैं परवरदा-ए-यक-ज़ात ऐ 'जोश' मस्त ओ बेगाना गुज़र जा कुरा-ए-ख़ाकी से ये तो है रहगुज़र-ए-सैल-ए-ख़यालात ऐ 'जोश' और तो और ख़ुद इंसान बहा जाता है कितना पुर-हौल है तूफ़ान-ए-रिवायात ऐ 'जोश' लोग कहते हैं हिजाबात नहीं जुज़ आयात किस से कहिए कि ये आयात हैं ख़ुद ज़ात ऐ 'जोश' अहल-ए-अल्फ़ाज़ शरीअत पे मिटे जाते हैं किस को समझाऊँ मशिय्यत के इशारात ऐ 'जोश' देखिए सुब्ह-ए-जुनूँ ज़ेहन में कब तालए हो अक़्ल सुनता हूँ कि है इक अबदी रात ऐ 'जोश' क़ुव्वत-ए-कल के मसालेह से और इतने बद-ज़न वाए बर-दग़दग़ा-ए-अहल-ए-मुनाजात ऐ 'जोश' साग़र-ए-मय ही में होता है तुलू और ग़ुरूब आफ़रीं बर-दिल-ए-रिन्दान-ए-ख़राबात ऐ 'जोश' कौन मानेगा कि हैं ऐन-ए-मशिय्यत वल्लाह ज़िंदगानी के ये बिगड़े हुए आदात ऐ 'जोश' तुझ को क्या फ़क़्र में राहत है कि शाही में फ़राग़ तू तो है ख़ल्वती-ए-पीर-ए-ख़राबात ऐ 'जोश'