जुज़ जुर्म-ए-इश्क़ कोई भी साबित किया गुनाह नाहक़ हमारी जान ली अच्छे हो वाह वाह अब कैसा चाक चाक हो दिल उस के हिज्र में गुथ्थवाँ तो लख़्त-ए-दिल से निकलती है मेरी आह शाम शब-ए-विसाल हुई याँ कि इस तरफ़ होने लगा तुलूअ' ही ख़ुर्शीद रू-सियाह गुज़रा मैं उस सुलूक से देखा न कर मुझे बर्छी सी लाग जा है जिगर में तिरी निगाह दामान-ओ-जेब चाक ख़राबी-ओ-ख़स्तगी उन से तिरे फ़िराक़ में हम ने किया निबाह बेताबियों को सौंप न देना कहीं मुझे ऐ सब्र मैं ने आन के ली है तिरी पनाह ख़ूँ-बस्ता बारे रहने लगी अब तो ये मिज़ा आँसू की बूँद जिस से टपकती थी गाह गाह गुल से शगुफ़्ता दाग़ दिखाता हूँ तेरे तीं गर मुवाफ़क़त करे है तनिक मुझ से साल-ओ-माह गर मना मुझ को करते हैं तेरी गली से लोग क्यूँकर न जाऊँ मुझ को तो मरना है ख़्वा-मख़्वाह नाहक़ उलझ पड़ा है ये मुझ से तरीक़-ए-इश्क़ जाता था 'मीर' में तो चला अपनी राह राह