जुनूँ के दम से आख़िर मर्तबा कैसा मिला मुझ को अभी फ़रहाद-ओ-क़ैस आए थे कहने मर्हबा मुझ को किसी सूरत भी रद्द होता नहीं ये फ़ैसला दिल का नज़र आता नहीं कोई भी तुझ सा दूसरा मुझ को सर-ए-कुंज-ए-तमन्ना फिर ख़ुशी से गुनगुनाउँगा अगर वो लौट कर आए तो फिर तुम देखना मुझ को न जान-ए-रश्क से ग़ुस्से से ग़म से या रक़ाबत से ये किस अंदाज़ से तकता है तेरा आइना मुझ को खुले तो सब ज़मानों के ख़ज़ाने हाथ आ जाएँ दर-ए-इक़लीम-ए-हफ़्त-आलम है वो बंद-ए-क़बा मुझ को गुमाँ में भी गुमाँ लगती है अब तो ज़िंदगी मेरी नज़र आता है अब वो ख़्वाब में भी ख़्वाब सा मुझ को कसाफ़त बार पा सकती नहीं ऐसी लताफ़त में करम उस का कि बख़्शा दिल के बदले आबला मुझ को सबा मेरी क़दम-बोसी से पहले गुल न देखेगी अगर वहशत ने कुछ दिन बाग़ में रहने दिया मुझ को न निकली आज गर कोई यहाँ यकजाई की सूरत तो कल से ढूँडते फिरना जहाँ में जा-ब-जा मुझ को गुज़रगाह-ए-नफ़स में हूँ मिसाल-ए-बर्ग-ए-आवारा कोई दम में उड़ा ले जाएगी बाद-ए-फ़ना मुझ को वो दिल-आवेज़ आँखें वो लब-ओ-रुख़्सार वो ज़ुल्फ़ें नहीं अब देखना कुछ भी नहीं उस के सिवा मुझ को अज़ल से ता-अबद दुनिया से ले कर आसमानों तक नज़र आता है तेरी ही नज़र का सिलसिला मुझ को मिरे होने से ही कुछ ए'तिबार उस का भी क़ाएम है जुनूँ तुम से निमट लेगा जो दीवाना कहा मुझ को कोई 'इरफ़ान' मुझ में से मुझे आवाज़ देता है अरे तू सोचता क्या है कभी कुछ तो बता मुझ को