मौत आई कितनी बार नई ज़िंदगी हुई निकली मगर न फाँस जिगर में छुपी हुई अब हो भी कोई माइल-ए-लुत्फ़-ओ-करम तो क्या होती नहीं शगुफ़्ता तबीअ'त बुझी हुई मौसम यही बहार का है इश्क़ के लिए आती नहीं पलट के जवानी गई हुई कुछ ज़हर का नशा है तो कुछ थरथरी सी है रग रग में आज है कोई शय पैरती हुई आब-ए-हयात भी कोई छिड़के अगर तो क्या बुझती नहीं है आग जिगर में लगी हुई आई है साँस दूसरी नश्तर लिए हुए इक साँस में हमें जो मसर्रत कभी हुई हर रोज़ एक दर्द नया दिल में है 'जिगर' हर रात सोचते हैं कि हद दर्द की हुई सहरा में चल के ग़म को भुला दो उठो 'जिगर' देखो वो आ रही है घटा झूमती हुई