जुनूँ के दश्त में निकलें वफ़ा की हद कर दें उठा के एड़ियाँ अपनी दराज़ क़द कर दें मोहब्बतों के चमन फिर से लहलहाएँगे ये नफ़रतों के सभी बाब क़ैद-ए-हद कर दें तुम्हारे हिज्र के मौसम जिन्हें मयस्सर हूँ वो बर्ग-ओ-बर की बहारों को मुस्तरद कर दें जो एहतिमाम-ए-बग़ावत का पेश-ख़ेमा हूँ ख़ुलूस-ए-दिल से वो ज़ुल्मत के बाब सद कर दें निगाह-ए-नाज़ से देखें तो बहर-ए-आज़ादी क़फ़स के सारे परिंदों को नाम-ज़द कर दें अगर हूँ रिश्ते उजालों से मो'तबर फिर तो चराग़ बढ़ के अँधेरों की ख़ुद मदद कर दें हमारे शहर में ऐसे भी लोग हैं 'अंजुम' वो जिस को देख लें उस को ही मुस्तनद कर दें