अजनबी शहर की अजनबी शाम में ज़िंदगी ढल गई मल्गजी शाम में शाम आँखों में उतरी उसी शाम को ज़िंदगी से गई ज़िंदगी शाम में दर्द की लहर में ज़िंदगी बह गई उम्र यूँ कट गई हिज्र की शाम में इश्क़ पर आफ़रीं जो सलामत रहा उस बिखरती हुई सुरमई शाम में मेरी पलकों की चिलमन पे जो ख़्वाब थे वो तो सब जल गए इस बुझी शाम में हर तरफ़ अश्क और सिसकियाँ हिज्र की दर्द ही दर्द है हर घड़ी शाम में आख़िरी बार आया था मिलने कोई हिज्र मुझ को मिला वस्ल की शाम में रात 'शाहीन' आँखों में कटने लगी इस तरह गुम हुई रौशनी शाम में