जुनून-ए-इश्क़ है 'सफ़दर' कहीं ये दिल से निकलेगा जो इस कूचे में आएगा बड़ी मुश्किल से निकलेगा नतीजा कुछ तो मेरे ज़ब्त-ए-ला-हासिल से निकलेगा चमन में आग छिड़केगा जो नाला दिल से निकलेगा नज़र दिल से न हट जाए कहीं ऐ ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा कि उन का कारवान-ए-नाज़ इसी मंज़िल से निकलेगा हिरासाँ क्यों है गर कश्ती भँवर में आ गई दिल की मोहब्बत का सफ़ीना डूब कर साहिल से निकलेगा सिमट आएँ अगर आँखों में बर्क़-ए-हुस्न की लहरें तो इक शो'ला जहाँ-अफ़रोज़ मेरे दिल से निकलेगा उड़ाई है जो ख़ाक अहल-ए-सफ़र ने उस को छटने दो कोई रस्ता इसी गर्द-ए-रह-ए-मंज़िल से निकलेगा हरम क्या बुत-कदे भी कर नहीं सकते क़ुबूल उस को फ़रेब-ए-लुत्फ़ खा कर जो तिरी महफ़िल से निकलेगा ख़ुलूस-ए-दिल ये कहता है क़दम आगे बढ़ाए जा कोई ख़ुद मुस्कुरा कर पर्दा-ए-महमिल से निकलेगा वो ख़ुद देखेंगे अपने हुस्न की ये आलम-आशोबी ये पहलू भी मिरी वारफ़्तगी-ए-दिल से निकलेगा सजाए जा चुकेंगे जब बिसात-ए-अर्श के तारे हमारा चाँद भी हँस कर हरीम-ए-दिल से निकलेगा हमारी आरज़ू है ख़्वाहिश-ए-महबूब के ताबे' हमारा मुद्दआ' निकला तो उस के दिल से निकलेगा मिरी शो'ला-नवाई फूँक देगी बज़्म को 'सफ़दर' पसीना शम्अ' का भी गर्मी-ए-महफ़िल से निकलेगा