जुनून-ए-शौक़ की राहों में जब अपने क़दम निकले निगार-ए-हुस्न की ज़ुल्फ़ों के सारे पेच-ओ-ख़म निकले ये बे-नूरी मिरे घर के उजालों की मआ'ज़-अल्लाह अगर देखें अँधेरे तो अँधेरों का भी दम निकले उभारे जाइए जब तक न उभरे नक़्श काग़ज़ पर तराशे जाइए जब तक न पत्थर से सनम निकले नहीं देखा था जब तक ख़ुद को समझे थे न जाने क्या शुऊर-ए-इश्क़ ले कर आइना-ख़ाने से हम निकले ये हसरत है सजा लूँ अपने होंटों पर हँसी में भी घड़ी भर को मिरे दिल से अगर एहसास-ए-ग़म निकले फ़राज़-ए-अर्श तक कैसे पहुँचते वो भला 'शाहिद' फ़ज़ा-ए-तूर की हद से न आगे जो क़दम निकले