जुर्म-ए-इज़हार-ए-तमन्ना आँख के सर आ गया चोर जो दिल में छुपा था आज बाहर आ गया मेरे लफ़्ज़ों में हरारत मेरे लहजे में मिठास जो कुछ इन आँखों में था मेरे लबों पर आ गया जिन की ताबीरों में थी इक उम्र की वारफ़्तगी फिर निगाहों में उन्हीं ख़्वाबों का मंज़र आ गया शहर के आबाद सन्नाटों की वहशत देख कर दिल को जाने क्या हुआ मैं शाम से घर आ गया पहले चादर की हवस में पाँव फैलाए बहुत अब ये दुख है पाँव क्यूँ चादर से बाहर आ गया हम दिवानों के लिए थीं वुसअतें ही वुसअतें ख़त्म जब सहरा हुआ आगे समुंदर आ गया तुम ने 'बाक़र' दिल का दरवाज़ा खुला रक्खा था क्यूँ जिस को आना था वो आख़िर दर्द बन कर आ गया