क्यूँ अँधेरों में रहें रात बसर होने तक ख़ुद ही ख़ुर्शीद न बन जाएँ सहर होने तक कितना अच्छा हो कि इस बार मरीज़-ए-शब-ए-ग़म अच्छा हो जाए मसीहा को ख़बर होने तक कितनी ही बार ख़यालों में तिरे पास गए हम-सफ़र करते रहे वक़्त-ए-सफ़र होने तक है ये तश्हीर-ए-मोहब्बत तो कहीं बा'द की चीज़ आप मिल सकते हैं दुनिया को ख़बर होने तक दाग़-ए-दिल अपनी ही सोज़िश से बना है ख़ुर्शीद और क्या गुज़रेगी क़तरे पे गुहर होने तक ऐ दिल-ए-वा'दा-तलब फिर कोई तज्वीज़-ए-वफ़ा इक नज़र और भी ताईद-ए-नज़र होने तक तेरे साथ अपने भी जीने की दुआएँ माँगीं हम-सफ़र साथ रहे ख़त्म-ए-सफ़र होने तक हद भी होती है कोई तिश्ना-लबी की 'नूरी' ख़ुद ही पी लेते हैं साक़ी की नज़र होने तक