कई अक्स माह-ए-तमाम थे मुझे खा गए वो जो ख़्वाब से लब-ए-बाम थे मुझे खा गए कोई राख थी जो सुलग रही थी इधर उधर वो जो रंग-ए-साया-ए-शाम थे मुझे खा गए वो जो आँसुओं की ज़बान थी मुझे पी गई वो जो बेबसी के कलाम थे मुझे खा गए वो जो मंज़िलों की दुआएँ थीं नहीं ले गईं वो जो रास्ते के सलाम थे मुझे खा गए वो जो बिखरे बिखरे से लोग थे मिरे रोग थे वो जो मुत्तसिल दर-ओ-बाम थे मुझे खा गए कभी ये ग़लत कभी वो ग़लत कभी सब ग़लत ये ख़याल-ए-पुख़्ता जो ख़ाम थे मुझे खा गए