कई जल्वे तिरी पहचान के धोके से निकले हैं सियासत सैंकड़ों चेहरे तिरे चेहरे से निकले हैं हमारे दौर के बच्चे सबक़ पढ़ते हैं चाहत का किताबों के बजाए दिल हर इक बस्ते से निकले हैं हर इक भाई की ख़्वाहिश है कि बटवारा हो अब घर का अभी हम मुल्क की तक़्सीम के सदमे से निकले हैं इधर देखो यहाँ माँ है उधर है बाप बच्चों का ज़माने भर के सब रिश्ते इसी रिश्ते से निकले हैं रसन तक कोई जाता है कोई मक़्तल तलक 'हाफ़िज़' जो रस्ते हुस्न वालों के हसीं कूचे से निकले हैं