कई पयाम बरा-ए-सुकून-ए-जाँ तो मिले मगर तमाम हुई अपनी दास्ताँ तो मिले कोई तो समझे मिरे कर्ब का लब-ओ-लहजा ये आरज़ू है मुझे कोई हम-ज़बाँ तो मिले कोई फ़ज़ा कोई मौसम हो हम से हो मंसूब बहार अगर नहीं मिलती हमें ख़िज़ाँ तो मिले मक़ाम-ए-शुक्र है मेरे लिए कि आख़िर-कार मिरे हरीफ़ों में कुछ अहल-ए-ख़ानदाँ तो मिले हूँ ग़म-नसीब तो क्या ग़म कि राह-ए-हस्ती में तलाश-ए-हक़्क़-ओ-सदाक़त में हमरहाँ तो मिले यही बहुत है ख़िज़ाँ को ख़िज़ाँ जो कहते हैं कुछ ऐसे फूल हमें ज़ेब-ए-गुलसिताँ तो मिले शिकस्ता-पा हैं तो क्या हम तो सर के बल जाएँ मगर ये बात कोई मीर-ए-कारवाँ तो मिले हिकायत-ए-दिल-ए-दर्द-आश्ना सुनाऊँगा तिरी नज़र से मुझे जुरअत-ए-बयाँ तो मिले ये ज़िंदगी के बयाबाँ में धूप का सहरा कहाँ क़याम करूँ कोई साएबाँ तो मिले ये रोज़-ओ-शब भी हमारे बदल तो सकते हैं कभी ज़मीन से आ कर ये आसमाँ तो मिले रिहा हुए हैं मगर 'लैस' ये रिहाई क्या क़फ़स से छूटने वालों को आशियाँ तो मिले