काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता यार मिलता है तो पहलू ही में है मिल जाता ख़िदमत-ए-यार में मैं जबकि हूँ साइल जाता कुछ न कुछ बोसा ओ दुश्नाम से है मिल जाता तेरे दाँतों से जो होने को मुक़ाबिल जाता सूरत-ए-अश्क गुहर ख़ाक में मिल मिल जाता फल मिला है ये तिरी तेग़ से हम को ऐ तुर्क फूट की तरह हर इक ज़ख़्म है खिल खिल जाता रुख़ के होते हुए ढूँडा न दहन का मज़मून सहल को छोड़ के क्यूँ जानिब-ए-मुश्किल जाता पर तो कतरे हैं यक़ीन है कि छुरी भी फेरे ज़मज़मों से मिरे सय्याद है हिल हिल जाता ज़ख़्म-ए-कारी की तिरी तेग़ से अल्लाह-री ख़ुशी रक़्स करता हुआ दुनिया से है बिस्मिल जाता राह भूले हुए हाजी है भटकता नाहक़ क'अबतुल्लाह जो जाता तो सू-ए-दिल जाता तरफ़ा रखती है ख़राबात-ए-मुग़ाँ कैफ़िय्यत होशियार आ के है इस बज़्म से ग़ाफ़िल जाता राह में शान-ए-करीमी है तिरी भर देती फिर के ख़ाली किसी दर से जो है साइल जाता ऐ सबा तू ही उड़ा कर रुख़-ए-लैला दिखला दस्त-ए-मजनऩूँ नहीं ता-पर्दा-ए-महमिल जाता कौन सी राहत-ए-जाँ की हैं ये आँखें मुश्ताक़ कर के अंधेर है वो रौनक़-ए-महफ़िल जाता आमद-ए-यार की कानों से सुनी है जो ख़बर छुप के पहलू से है आँखों की तरफ़ दिल जाता