काम अगर हस्ब-ए-मुद्दआ न हुआ तेरा चाहा हुआ बुरा न हुआ ख़ाक उड़ती जो हम ख़ुदा होते बंदगी का भी हक़ अदा न हुआ सब जताया किए नियाज़-ए-क़दीम वो किसी का भी आश्ना न हुआ रख़्श-ए-अय्याम को क़रार कहाँ इधर आया उधर रवाना हुआ क्या खुले जो कभी न था पिन्हाँ क्यूँ मिले जो कभी जुदा न हुआ सख़्त फ़ित्ना जहान में उठता कोई तुझ सा तिरे सिवा न हुआ जो गधा ख़ू-ए-बद की दलदल में जा फँसा फिर कभी रिहा न हुआ तू न हो ये तो हो नहीं सकता मेरा क्या था हुआ हुआ न हुआ रह-रव-ए-मस्लक-ए-तवक्कुल है वो जो मुहताज ग़ैर का न हुआ