कभी तक़्सीर जिस ने की ही नहीं हम से पूछो तो आदमी ही नहीं मर चुके जीते-जी ख़ुशा क़िस्मत इस से अच्छी तो ज़िंदगी ही नहीं दोस्ती और किसी ग़रज़ के लिए वो तिजारत है दोस्ती ही नहीं या वफ़ा ही न थी ज़माने में या मगर दोस्तों ने की ही नहीं कुछ मिरी बात कीमिया तो न थी ऐसी बिगड़ी कि फिर बनी ही नहीं जिस ख़ुशी को न हो क़याम-ओ-दवाम ग़म से बद-तर है वो ख़ुशी ही नहीं बंदगी का शुऊ'र है जब तक बंदा-परवर वो बंदगी ही नहीं एक दो घूँट जाम-ए-वहदत के जो न पी ले वो मुत्तक़ी ही नहीं की है ज़ाहिद ने आप दुनिया तर्क या मुक़द्दर में उस के थी ही नहीं