काम मुझ से कोई हुआ ही नहीं बात ये है कि मैं तो था ही नहीं मुझ से बिछड़ी जो मौज-ए-निकहत-ए-यार फिर मैं उस शहर में रहा ही नहीं किस तरह तर्क-ए-मुद्दआ कीजे जब कोई अपना मुद्दआ' ही नहीं कौन हूँ मैं जो राएगाँ ही गया कौन था जो कभी मिला ही नहीं हूँ अजब ऐश-ग़म की हालत में अब किसी से कोई गिला ही नहीं बात है रास्ते पे जाने की और जाने का रास्ता ही नहीं है ख़ुदा ही पे मुनहसिर हर बात और आफ़त ये है ख़ुदा ही नहीं दिल की दुनिया कुछ और ही होती क्या कहें अपना बस चला ही नहीं अब तो मुश्किल है ज़िंदगी दिल की या'नी अब कोई माजरा ही नहीं हर तरफ़ एक हश्र बरपा है 'जौन' ख़ुद से निकल के जा ही नहीं मौज आती थी ठहरने की जहाँ अब वहाँ खेमा-ए-सबा ही नहीं