तिलिस्म ख़त्म चलो आह-ए-बे-असर का हुआ वो देखो जिस्म बरहना हर इक शजर का हुआ सुनाऊँ कैसे कि सूरज की ज़द में हैं सब लोग जो हाल रात को परछाइयों के घर का हुआ सदा के साए में सन्नाटों को पनाह मिली अजब कि शहर में चर्चा न इस ख़बर का हुआ ख़ला की धुँद ही आँखों पे मेहरबान रही हरीफ़ कोई उफ़ुक़ कब मिरी नज़र का हुआ मैं सोचता हूँ मगर याद कुछ नहीं आता कि इख़्तिताम कहाँ ख़्वाब के सफ़र का हुआ