काम पड़ा याद आया मौला है ये तर्ज़-ए-इबादत कैसी निस्बत जिस को मौला से हो उस को हाजत-वाजत कैसी जब दिल में नहीं मस्जूद तिरे सब सज्दे हैं बे-सूद तिरे मा'बूद बसा हो दिल में तो सज्दे की है ज़हमत कैसी चाहे गर तू उस की रहमत कर उस के बंदों की ख़िदमत ख़िल्क़त से है नफ़रत गर तो ख़ालिक़ से है रग़बत कैसी बात तिरी के हम ऐ वा'इज़ हो न सकेंगे क़ाइल हरगिज़ दुनिया ही जब छोड़ चुके हो जन्नत की फिर हसरत कैसी मत बंदों से कुछ माँग बशर बंदे तो हैं आप गदागर तू मौला की बस कर 'इबादत बंदों की है इताअ'त कैसी मालिक भी वो राज़िक़ भी वो सारे जग का ख़ालिक़ भी वो उस पर है तेरा तकिया 'सदा' फिर ये फ़िक्र-ए-उक़ूबत कैसी