जिस को देखे बिना क़रार नहीं कैसे कह दें कि उस से प्यार नहीं रुख़ पे तेरे अगर निखार नहीं तू बहार ऐ सनम बहार नहीं इस में सूद-ओ-ज़ियाँ का कर न हिसाब इश्क़ इबादत है कारोबार नहीं रोक लो तुम से गर ये रुकता है दिल पे मेरा तो इख़्तियार नहीं गो मुसीबत में सब नदारद थे वर्ना इशरत में कौन यार नहीं क्यों न जी-भर के रो लिया जाए पास जब कोई ग़म-गुसार नहीं चुप रहूँ कैसे तक के ज़ुल्म-ओ-सितम आदमी हूँ कोई मज़ार नहीं हाजतें हैं गिनी-चुनी सब की हसरतों का कोई शुमार नहीं क्या यक़ीं अहद-ए-वस्ल का ऐ 'सदा' ज़ीस्त का ही जब ए'तिबार नहीं