कब गवारा थी ज़माने की कोई बात मुझे वो तो ले आई यहाँ गर्दिश-ए-हालात मुझे रोक सकती हूँ उसे रोज़-ए-क़यामत तक भी संग तेरे जो मिले प्यार की इक रात मुझे आख़िरी गाम तलक जीत ही समझी मैं ने बड़ी तदबीर से लाई है मिरी मात मुझे लोग जिस कार-ए-अज़िय्यत में मरे जाते हैं ज़िंदा रखते हैं वही हिज्र के लम्हात मुझे तुम से मिलने के लिए रोज़ पढ़ा करती थी अब बिछड़ ने ही नहीं देतीं ये आयात मुझे लफ़्ज़ होंटों से निकलते हुए मर जाते हैं उस से आती ही नहीं करनी शिकायात मुझे