कब हक़ीक़त वो भला दुनिया में जाम-ए-जम की है जो तुम्हारे मय-कदे में मेरी चश्म-ए-नम की है मैं किसी के लम्स की तासीर ख़ुद में भर तो लूँ आबरू लेकिन मुझे प्यारी तुम्हारे ग़म की है ज़ुल्फ़ का हर पेच उलझाव में डाले है मगर असल में जादूगरी तेरी कमर के ख़म की है देख लेते हैं तो बढ़ती है तलब कुछ और भी गो कहानी सामने की ज़ख़्म पर मरहम की है ख़ाक में पानी मिला कर आग पर है रख दिया अब मुजस्सम को ज़रूरत तुझ हवा के दम की है रुख़ पे आँचल किस लिए ये अजनबी लहजा है क्यों सरसराहट ये यक़ीनन हिज्र के परचम की है चल न पाएँगे किसी के वसवसे मुझ पर 'शजर' पढ़ कर उस के नाम की तस्बीह ख़ुद पे दम की है