कब कहाँ किस तरह सफ़र करते ज़ीस्त अपनी थी जो बसर करते ज़िंदगी रास्तों में काटी है गर ठहरते कहीं तो घर करते ख़्वाब अच्छे नहीं लगे मुझ को रात कैसे तुझे गुज़र करते चंद क़दमों में नाप देते हम गर जो सहरा तिरा सफ़र करते इश्क़ फिर से नहीं किया मैं ने फिर जो करते तो बे-असर करते