कब ख़ला में सूरज की ढय से शाम होती है बद-दुआ' सी बद-सूरत शय से शाम होती है आफ़्ताब जब थक के हौज़ से निकलता है तब सराब-ज़ादों की नय से शाम होती है घोंसले बुलाते हैं पंछियों को पेड़ों में जब फ़ज़ा में चीलों की क़य से शाम होती है कौन देख पाता है रात की सियाहकारी दिन को होश आता है मय से शाम होती है रौशनी की सड़कों पर ख़ौफ़ गुनगुनाता है सर से रात आती है लय से शाम होती है मैं पकड़ के रखता हूँ तीरगी को आँखों में कुछ समझ नहीं आता कैसे शाम होती है मेरे अस्र का सूरज बाद-ए-अस्र उगता है फिर स्याही के हक़ में जैसे शाम होती है गेट खटखटाता हूँ जब भी देर से 'असवद' उस को रात लगती है वैसे शाम होती है