कब से हम लोग इस भँवर में हैं अपने घर में हैं या सफ़र में हैं यूँ तो उड़ने को आसमाँ हैं बहुत हम ही आशोब-ए-बाल-ओ-पर में हैं ज़िंदगी के तमाम-तर रस्ते मौत ही के अज़ीम डर में हैं इतने ख़दशे नहीं हैं रस्तों में जिस क़दर ख़्वाहिश-ए-सफ़र में हैं सीप और जौहरी के सब रिश्ते शे'र और शे'र के हुनर में हैं साया-ए-राहत-ए-शजर से निकल कुछ उड़ानें जो बाल-ओ-पर में हैं अक्स बे-नक़्श हो गए 'अमजद' लोग फिर आइनों के डर में हैं