कब से शब-ए-फ़िराक़ तलाश-ए-सहर में है सूरज मिरे नसीब का लम्बे सफ़र में है महरूमियों की धूप से तपते हैं बाम-ओ-दर माहौल साज़गार कहाँ मेरे घर में है फिर तिश्नगी है क़ौस-ए-क़ुज़ह का समाँ लिए आब-ए-रवाँ है आँख में सहरा नज़र में है फ़ानूस जगमगाए हुए हैं मकान के काई मगर जमी हुई दीवार-ओ-दर में है सब ही मिरी तलाश में निकले हैं हर तरफ़ 'तालिब' कहीं छुपा हुआ अपनी नज़र में है