ज़माना साथ गुज़ारा अकेलियाँ न खुलीं उदास होने से पहले सहेलियाँ न खुलीं ग़मों की धूप में फिर बे-नमक हुए चेहरे निगाह बुझ गई रंगों की थैलियाँ न खुलीं लिपट के रोए अमर-बेल से दर-ओ-दीवार पलट के आए मुसाफ़िर हवेलियाँ न खुलीं किताब-ए-ज़ीस्त के सारे सवाल बे-मा'नी जवाब उलझने लगे और पहेलियाँ न खुलीं हवा के लम्स में तासीर-ए-दस्त-ए-यार कहाँ नज़र ने लाख पुकारा चम्बेलियाँ न खुलीं हिनाई हो के कोई नाम फिर भी भेद रहा सबा पे उस की महकती हथेलियाँ न खुलीं