कब तबीअत को रास आए हैं ये जो दिल पर ग़मों के साए हैं रहज़नों से नहीं कोई शिकवा रहबरों से फ़रेब खाए हैं सर्द रातों में सर्द आहों ने अश्क आँखों ही में जमाए हैं चाँदनी ने सफ़ेद मख़मल पर आज जादू कई जगाए हैं हैफ़ ये निय्यतों के खोटे लोग आप ही अपना घर जलाए हैं वक़्त की क्या सितम-ज़रीफ़ी है जो थे अपने वही पराए हैं मेरी हिम्मत को मर्हबा कहिए आँधियों में दिए जलाए हैं 'नाज़' तारीकी-ए-तवहहुम में इल्म ही ने दिए जलाए हैं