कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं जी चाहता है भाग लूँ दुनिया उठा के मैं होती है नींद में कहीं तश्कील-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल उठता हूँ अपने ख़्वाब का चेहरा उठा के मैं बा'द अज़ सदा-ए-कुन हुई तक़्सीम-ए-हस्त-ओ-बूद फिरता था काएनात अकेला उठा के मैं क्यूँकर न सहल हो मुझे राह-ए-दयार-ए-इश्क़ लाया हूँ दश्त-ए-नज्द का नक़्शा उठा के मैं बढ़ने लगा था नश्शा-ए-तख़्लीक़-ए-आब ओ ख़ाक वो चाक उठा के चल दिया कूज़ा उठा के मैं है साअत-ए-विसाल के मलने पे मुनहसिर कस सम्त भागता हूँ ये लम्हा उठा के मैं क़ुर्बत-पसंद दिल की तबीअत में था तज़ाद ख़ुश हो रहा हूँ हिज्र का सदमा उठा मैं अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक उक्ता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं अच्छा भला तो था तन-ए-तन्हा जहान में पछता रहा हूँ ख़ल्क़ का बेड़ा उठा के मैं 'आज़र' मुझे मदीने से हिजरत का हुक्म था सहरा में ले के आ गया ख़ेमा उठा के मैं