कब तलक पीवेगा तू तर-दामनों से मिल के मुल एक दम ऐ ग़ुंचा-लब हम से कभी तो खिल के खुल बे-सर-ओ-बर्गों को क्या निस्बत है सैर-ए-बाग़ से दाग़-ए-दिल हैं हम तही-दस्तान-ए-पा दर-गिल के गुल उस की जंग-ए-बे-सबब का है तग़ाफ़ुल ही इलाज आप ढेला हो के आवेगा इधर ढल ढल के ढुल ज़ेर-ए-अबरू इस तरह मिज़्गाँ नहीं रहती मुदाम सर पे मेरे जूँ रहे है तेग़ उस क़ातिल की तुल रब्त कुछ बज़्म-ए-मशाएख़ से नहीं रिंदों के तईं कब लिए ये मस्त साग़र के सिवा क़ुलक़ुल की क़ुल हो सके तो बख़िया ओ मरहम का यारो वक़्त है जाँ न जावे इस तन-ए-मजरूह में घाएल के घुल बा-कद-ए-ख़म-गश्ता हूँ रोने से नित के मैं ख़राब मौज-ए-दरिया तोड़ते हैं जिस तरह पिल पिल के पुल चिल्ले की मानिंद खींचूँ जब तलक बर में न तंग कब मिटे है उस बुत-ए-हरजाई-ए-चंचल की चुल दौर में उस ज़ुल्फ़ के है बस कि दीवानों की धूम सुनता हूँ चारों तरफ़ से मैं सदा-ए-ग़ुल के ग़ुल 'हसरत' उस के दाम में फँसना मुक़द्दर था मिरा थे मिरी नज़रों में तो पेच-ओ-ख़म उस काकुल के कुल