कब उस के दर पे मैं ने दिल की सौग़ात-ए-गिराँ रख दी तक़ाज़ा-ए-मोहब्बत ने जहाँ चाहा वहाँ रख दी मिरी बे-ताबियों ने कर दिया बेचैन तुम को भी तुम्हारी हर अदा में कब मोहब्बत ने ज़बाँ रख दी हुआ क्या बर्क़ ने गर फूँक डाला आशियाँ मेरा कि मैं ने शाख़-ए-गुल पर फिर बिना-ए-आशियाँ रख दी जिगर में है अभी दम-ख़म अभी है ताब ज़ख़्मों की ये क्यों फिर तीर बरसाते हुए तू ने कमाँ रख दी ज़रा से दिल को क्या क्या वुसअ'तें तू ने ख़ुदाया दीं यहीं फ़िक्र-ए-जहाँ रख दी यहीं फ़िक्र-ए-बुताँ रख दी रहूँ गर्म-ए-सफ़र उम्र-ए-रवाँ के लहज़े लहज़े में मुक़द्दर ने मिरी मंज़िल ही बेनाम-ओ-निशाँ रख दी कभी सदक़े वफ़ाओं के करम की इक नज़र भी हो जफ़ा ही महज़ क्यों हिस्से में मेरे मेहरबाँ रख दी ख़ुशा वो वक़्त जब गहवारा-ए-उल्फ़त में हम भूलें मन-ओ-तू की तमीज़ अब क्यों दिलों के दरमियाँ रख दी सबब खुलता नहीं कुछ यासमीन-ओ-गुल की चश्मक का बिना कैसी चमन-बंदी की तू ने बाग़बाँ रख दी 'हबीब' इन आंसुओं को देख मत चश्म-ए-हिक़ारत से कि हर क़तरे में मैं ने दर्द की इक दास्ताँ रख दी