कब वो तन्हाई के आसार से घबराए हैं लोग तो रौनक़-ए-बाज़ार से घबराए हैं कौन करता है भला आबला-पाई का गिला हम तो बस रस्तों की रफ़्तार से घबराए हैं अपने क़ामत से निकलना पड़ा बाहर उन को जो शजर साया-ए-दीवार से घबराए हैं लोग क़ीमत तो लगाएँगे ये बाज़ार तो है बे-वज्ह हम तो ख़रीदार से घबराए हैं किस लिए माँग रहे हैं मिरी दस्तार वो लोग जो मरी जुरअत-ए-गुफ़्तार से घबराए हैं हम को ऐसे नहीं आवारगी सूझी 'एहसान' हम तो अपने दर-ओ-दीवार से घबराए हैं