का'बे की आरज़ू है न बुत-ख़ाना चाहिए मय-ख़ाना चाहिए दर-ए-जानाना चाहिए ईमाँ के इम्तियाज़ का आईना कुफ़्र है का'बे के मुत्तसिल ही सनम-ख़ाना चाहिए वहशत है और इश्क़-ए-जुनूँ-ख़ेज़ और है ज़ंजीर ज़ुल्फ़ की प-ए-दीवाना चाहिए यकसूई-ए-ख़याल है आबादियों से दूर दीवानगान-ए-इश्क़ को वीराना चाहिए तुम जिस जगह हो क्यों न हो मेरा वहाँ गुज़र हर अंजुमन में शम्अ' को परवाना चाहिए मय-ख़्वार पाँव रखने लगे हैं सँभाल कर साक़ी फिर उन को लग़्ज़िश-ए-मस्ताना चाहिए मय से ग़रज़ न साग़र-ओ-मीना से वास्ता तेरी नशीली आँख का पैमाना चाहिए साक़ी के दस्त-ए-फ़ैज़ ने इंसाँ बना दिया ऐ शैख़ अदा-ए-सज्दा-ए-शुक्राना चाहिए वा बाब-ए-मय-कदा भी है बादा भी जाम भी 'नव्वाब' सिर्फ़ जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए