कभी भँवर थी जो इक याद अब सुनामी है मगर ये क्या कि मुझे अब भी तिश्ना-कामी है मैं उस पे जान छिड़कता हूँ बा-ख़ुदा फिर भी कहीं है कुछ मरे भीतर जो इंतिक़ामी है मगर जो वो है वही है भला कहाँ कोई और हज़ार ऐब सही माना लाख ख़ामी है जो जी में आया वही मिन्न-ओ-एन है काग़ज़ पर न सोचा समझा सा कुछ और न एहतिमामी है किसी के रंग रंगा मैं न मेरे रंग कोई ये इब्तिदाई नया ढब तो इख़्तितामी है मुलाहिज़ा हो कहूँ क्यूँ तवज्जोह क्यूँ चाहूँ कलाम कब है मिरा शेर ख़ुद-कलामी है मैं अपनी मोंछों पे दूँ ताव भी तो किस मुँह से यहाँ तो जो भी है मुझ से बड़ा हरामी है