कभी धीरे कभी उजलत से किया जाता है काम हिजरत का सुहूलत से किया जाता है ये वदीअ'त हुआ जज़्बा है अता है रब की इश्क़ भी कोई ज़रूरत से किया जाता है इतना ख़ुद-सर न हुआ कर मिरे मरजान सिफ़त कुछ किनारा भी अदावत से किया जाता है यही दुनिया का चलन जान कर ऐ जान-ए-ग़ज़ल रंग ख़ुद पर भी ज़रूरत से किया जाता है आख़िर-ए-शब की ख़मोशी से यही मुझ पे खुला हिज्र में सामना वहशत से किया जाता है मरहला-वार मोहब्बत का सफ़र हो 'आदिल' तय ये रस्ता कि रियाज़त से किया जाता है