कभी दीवार को तरसे कभी दर को तरसे हम हुए ख़ाना-ब-दोश ऐसे कि घर को तरसे झूट बोलूँ तो चिपक जाए ज़बाँ तालू से झूट लिक्खूँ तो मिरा हाथ हुनर को तरसे क़र्या-ए-नामा-बराँ अब के कहाँ जाएँ कि जब तिरे पहलू में भी हम उस की ख़बर को तरसे सब के सब तिश्ना-ए-तकमील हैं इस शहर के लोग कोई दस्तार को तरसे कोई सर को तरसे शहर-ए-बे-मेहर में ज़िंदा हैं तिरे बिन जैसे धूप के शहर का बाशिंदा शजर को तरसे