कभी हवा कभी बिजली के हम-रिकाब हुआ फिर इस के बअ'द मैं जीने में कामयाब हुआ नज़र-नवाज़ नज़ारे थे मेरे चारों तरफ़ खुली जो आँख तो बरहम वो सारा ख़्वाब हुआ कभी जो बाइस-ए-राहत था अहल-ए-दिल के लिए ये क्या हुआ कि वो मंज़र भी अब अज़ाब हुआ वो अल-अतश की सदाएँ वो कर्ब-ए-तिश्ना-लबी फ़ुरात जिस के तसव्वुर से आब आब हुआ हमारी चीख़ फ़ज़ाओं में खो गई यानी खुला दरीचा कोई वा न कोई बाब हुआ हमारे क़त्ल की साज़िश में था शरीक तो क्या ख़ता मुआफ़ करम उस का बे-हिसाब हुआ अना पसंद तबीअ'त की सरफ़राज़ी देख कि 'नाज़' ख़ाक में मिल कर भी आफ़्ताब हुआ