कभी इधर जो सग-ए-कू-ए-यार आ निकला गुमाँ हुआ मिरे वीराने में हुमा निकला रुख़ उस का देख हुआ ज़र्द नय्यर-ए-आज़म सुनहरे बुर्ज से जिस दम वो मह-लक़ा निकला वो सुन के पाक मोहब्बत का नाम कहते हैं हमारी जान को लो ये भी पारसा निकला हमारे पाँव पड़े आ के आबले हर गाम कभी जो दश्त-ए-जुनूँ में बरहना-पा निकला मह-ए-सियाम में आया जो वो हिलाल-अबरू गुमाँ हुआ ये मुझे चाँद ईद का निकला जहाँ की सैर तो की तू ने लेकिन ऐ शह-ए-हुस्न कभी फ़क़ीर के तकिए पे तू न आ निकला न निकला वहम के मारे वो घर से भी 'सय्याह' गली से यार के ताबूत जब मिरा निकला