कभी इक़रार करता है कभी इंकार करता है मोहब्बत का वो मुझ से इस तरह इज़हार करता है मेरे ख़्वाबों में आ कर छीन लेता है सुकूँ मेरा ये कैसा दोस्त है जीना मिरा दुश्वार करता है कभी भी सामने से दू-बदू होता नहीं ज़ालिम अजब बुज़दिल है हर दम फ़ासले से वार करता है बिछाता है जो काँटे दूसरों की राह में हर दम हक़ीक़त में वो अपनी राह ख़ुद पुर-ख़ार करता है निबाहेगा ज़माने से वो कैसे रस्म-ए-उल्फ़त को जो अपनी कज-अदाई से हमें बेज़ार करता है गुनाहों में छुपा रक्खी है उस ने किस क़दर लज़्ज़त नहीं करना है जिस को दिल उसे सौ बार करता है 'मजीद' अब दिल लगाना भी नहीं आता है लोगों को जिसे देखो वही उल्फ़त में कारोबार करता है